मगर मिट्टी में तो लहू है, वो विद्रोह कैसे करे
ये पेड़ पौधे तरु द्रुम सब ताकते हैं मौन खड़े
जो लहू है मिट्टी में, वो सुना सियासत की है
जो खुसबू आती है बाग़ से, सच बग़ावत की है
तुम कौन हो?किसान हो क्या? क्या भगवान हो?
मैं कौन हूँ? इंसान हूँ क्या? शायद सहज़ पाषाण हूँ
न ना धर्म की बात मत करो, लहू खौलता है मेरा
लहू जो मिट्टी में है, लहू का गन्दा नाला बहता है
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